103 की उम्र में रिहाई: 43 साल जेल में बंद लखन की कहानी, न्याय या अन्याय की एक दर्दनाक मिसाल
सारांश
उत्तर प्रदेश के कौशांबी जेल से एक ऐसी खबर सामने आई है जो हमारी न्याय व्यवस्था पर कई गंभीर सवाल खड़े करती है। 103 वर्षीय लखन पुत्र मंगली को हत्या के एक मामले में 43 साल जेल में बिताने के बाद आखिरकार अदालत ने बाइज़्ज़त बरी कर दिया है। लेकिन इस 'न्याय'

उत्तर प्रदेश के कौशांबी जेल से एक ऐसी खबर सामने आई है जो हमारी न्याय व्यवस्था पर कई गंभीर सवाल खड़े करती है। 103 वर्षीय लखन पुत्र मंगली को हत्या के एक मामले में 43 साल जेल में बिताने के बाद आखिरकार अदालत ने बाइज़्ज़त बरी कर दिया है। लेकिन इस 'न्याय' के लिए उन्हें अपनी पूरी जवानी और बुढ़ापे का एक लंबा हिस्सा सलाखों के पीछे गुजारना पड़ा।
लखन को वर्ष 1977 में हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उस समय वह एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति थे। पांच साल बाद, 1982 में निचली अदालत ने उन्हें उम्रकैद की सज़ा सुनाई। लखन हमेशा खुद को निर्दोष बताते रहे और इसी conviction के ख़िलाफ़ उन्होंने 1982 में ही इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील दायर की। उनकी यह अपील स्वीकार भी कर ली गई, लेकिन इंसाफ की घड़ी आने में 43 लम्बे साल लग गए।
यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि कोई व्यक्ति न्याय की आस में 43 साल तक जेल में कैसे रहा होगा। इलाहाबाद हाईकोर्ट में उनका मुकदमा 43 वर्षों तक चलता रहा और इस पूरी अवधि में लखन जेल में ही बंद रहे। अंततः, 2 मई 2025 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उन्हें बाइज़्ज़त बरी किए जाने का आदेश दिया, जिसके बाद लखन को रिहा किया गया। जब वह जेल से बाहर आए, तो उनकी उम्र 103 वर्ष हो चुकी थी, शरीर कमजोर और दुनिया पूरी तरह बदल चुकी थी।
लखन की यह कहानी सिर्फ उनकी अकेले की नहीं है, बल्कि यह हमारे देश की न्याय व्यवस्था की उस कड़वी सच्चाई को भी उजागर करती है, जहाँ न्याय पाना एक महंगा और थका देने वाला सौदा है। आज भी देश में लाखों लोग अदालतों के चक्कर काट रहे हैं। कई परिवार अपनी जमीनें, मकान बेचकर, कर्ज़ लेकर मुकदमे लड़ रहे हैं, सिर्फ न्याय की एक उम्मीद में। उनके पास धैर्य के सिवा कोई चारा नहीं होता, क्योंकि अक्सर आधी या पूरी ज़िंदगी एक मुकदमे में ही खप जाती है।
तमाम मुश्किलों और देरी के बावजूद, आज भी देश के आम नागरिक की आखिरी उम्मीद अदालतें ही हैं। जब हर तरफ से निराशा हाथ लगती है, तो व्यक्ति कहता है, "मैं कोर्ट जाऊँगा।" लेकिन सवाल यह है कि क्या लखन जैसे गरीब व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट में महंगे वकीलों का खर्च उठा सकते हैं? क्या उनके पास इतने संसाधन होते हैं कि वे अपने मामले की प्रभावी पैरवी कर सकें?
लखन का मामला हमारी न्याय व्यवस्था को चलाने वालों के लिए एक आईना है। यह सोचने का समय है कि इंसाफ इतना महंगा और इतना समय लेने वाला क्यों हो गया है? गरीब जनता अक्सर बिना इंसाफ के लखन की तरह ही दशकों तक इंतज़ार करने को मजबूर क्यों होती है? देर से मिला न्याय क्या वास्तव में न्याय कहला सकता है, खासकर तब जब किसी ने अपनी पूरी ज़िंदगी उसकी कीमत चुकाई हो?
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