बिहार में 9 धुर ज़मीन बचाने के कारण बिक गई 10 बीघा जमीन, 55 साल यानी कि 3 पीढ़ी तक चली कानूनी लडाई
सारांश
पचपन साल, तारीख़ों की धूल और जमीन की कुर्बानी के बाद आया एक फैसला — जब इंसाफ मिला, तब तक आधी ज़िंदगी और दस बीघा ज़मीन कोर्ट की भेंट चढ़ चुकी थी। ये कहानी है उस न्याय की, जो आता तो है... मगर बहुत देर से।

नमस्कार, मैं डेविड कुमार। ये कहानी है उस मुल्क की, जो अपने नागरिकों से वादा तो करता है "सस्ता और त्वरित न्याय", लेकिन जब तक वो न्याय आता है, तब तक या तो वादी दुनिया छोड़ चुका होता है या उसकी जमीन। बिहार के बेगूसराय से एक खबर आई है। एक ऐसा फैसला आया है, जो खुद इंसाफ से ज़्यादा इंतज़ार की कहानी है।
चेड़िया बरियारपुर थाना क्षेत्र का एक गांव — बसही। यहां के दो रिश्तेदार, जगदीश यादव और जड्डू यादव। रिश्ते में भाई, लेकिन व्यवहार में दुश्मन। 1971 में नौ धुर जमीन पर झोपड़ी बनी थी।
उस झोपड़ी की नींव पर शुरू हुई एक ऐसी लड़ाई, जिसने दो परिवारों की छत छीन ली। तब कोर्ट में केस गया था — अनुमंडल न्यायालय में। फिर क्या हुआ? तारीख़ पर तारीख़, वकील पर वकील, जज पर जज और पीढ़ी पर पीढ़ी बदलती गई। पर नहीं बदला तो केवल अदालत के गलियारों में घूमता इंसाफ।
1979 में फैसला आया — जगदीश यादव के पक्ष में। पर क्या आप समझते हैं कि एक फैसले से कुछ बदलता है इस देश में? फैसला आया, लेकिन विरोध भी आया।
मामला फिर टाइटल सूट में चला गया। फिर शुरू हुई 46 साल की एक और दौड़ — कोर्ट, कचहरी, खतियान, गवाही, और अंतहीन तारीख़ें। 55 साल की इस लड़ाई में दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी पांच-पांच बीघा जमीन बेच दी। जमीनें बिकती गईं, घर उजड़ते गए, लेकिन केस चलता रहा। कई वकील इस केस के दौरान स्वर्ग सिधार गए।
न्यायाधीश बदले, सरकारें बदलीं, संविधान की प्रस्तावना बार-बार दोहराई गई — लेकिन गांव के लोग भूल गए कि न्याय नाम की भी कोई चीज़ होती है। और फिर आया 24 मई 2025। कोर्ट ने कहा — जगदीश यादव का हक़ है। लेकिन इस फैसले के साथ कोई रजिस्टर नहीं करता कि दोनों परिवारों ने 10 बीघा ज़मीन न्याय के नाम पर कुर्बान कर दी।
55 साल बाद आया ये फैसला, तब आया जब शायद जगदीश यादव की आंखों में अब ज़्यादा दिखता नहीं, लेकिन जब आंसू निकले — तो वो इंसाफ के नहीं, उस उम्र के थे जो कोर्ट की सीढ़ियों पर खप गई।
आप सोचिए — अगर आपसे कहा जाए कि अपने जीवन का आधा हिस्सा किसी केस में झोंक दीजिए, अपनी सारी ज़मीन बेच दीजिए, अगली दो पीढ़ियों को वकीलों के चक्कर में डाल दीजिए — क्या आप भी इसे ‘इंसाफ’ कहेंगे? ये बसही गांव की कहानी नहीं है। ये इस देश की सच्चाई है। जहां ज़मीनें अदालत में बिकती हैं, और न्याय — वो अक्सर लाश पर आता है।
मैं डेविड कुमार, इन्हीं आवाज़ों को लेकर आपकी अदालत से बाहर, आपके दिल तक आने की कोशिश करता हूँ। क्योंकि वहां जहां न्याय देर से आता है, वो इंसाफ नहीं, सिर्फ एक औपचारिकता होती है।
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